सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

पुस्तक समीक्षा "छोटी आंखों की पुतलियों में" देवेश पथ सारिया की ताइवान डायरी

एक अलहदा अनुभव है छोटी आँखों की पुतलियों से दुनिया को देखना- रमेश शर्मा

ताइवान डायरी 'छोटी आंखों की पुतलियों में' देवेश पथ सारिया

युवा कवि देवेश पथ सरिया की कविताओं को पढ़ने के कई अवसर मेरे हाथ लगे हैं। भौतिक शास्त्र के पोस्ट डॉक्ट्रल फेलो होने के बावजूद हिन्दी साहित्य के प्रति गहरी रूचि और प्रतिबद्ध इमानदारी , मौलिक शैली और गंभीर अभिव्यक्ति के जरिये उन्होंने अपनी कविताओं के लिए एक समृद्ध पाठक वर्ग तैयार किया है। देवेश के भीतर मौजूद गद्यकार को जानने समझने के अवसर अब तक कम मिले, यद्यपि उनकी हाल फिलहाल प्रकाशित एक दो कहानियों के माध्यम से मैंने महसूस किया कि उनके भीतर का यह हुनर भी एक नए आकार में देर सवेर हमारे सामने आएगा और पाठकों को चकित करेगा। हाल ही में सेतु प्रकाशन से प्रकाशित होकर आयी उनकी ताइवान डायरी की किताब 'छोटी आँखों की पुतलियों से' उनके भीतर मौजूद उसी गद्यकार को थोड़ा और विस्तार देती है । उनके भीतर मौजूद गद्य लेखन का यह हुनर हमें आश्वस्त करता है कि आगे चलकर इस युवा रचनाकार से हमें बहुत कुछ ऐसा पढ़ने को मिलेगा जो हमारी पाठकीय परिपक्वता को विस्तार देते हुए हमें संतुष्ट करेगा । 

देवेश की ताइवान डायरी 'छोटी आँखों की पुतलियों से' भारतीय उप महाद्वीप से निकल कर चारों तरफ समुद्र से घिरे ताइवान द्वीप की इस तरह सैर कराती है कि इस यात्रा में जैसे हर जगह हम उनके साथ हैं और उनकी आँखों से वहां की संस्कृति और समूची दुनिया को देख समझ रहे हैं | वैचारिक पुष्टता और कलात्मक गद्य के माध्यम से ताइवान की बहुत बारीक़ घटनाओं को अभिव्यक्त करते हुए देवेश जिस तरह बार बार भारतीय घटनाओं से उसे अंतर सम्बंधित करते हैं तब हमें लगता है कि वे अपनी जड़ों में बार बार लौट रहे हैं | उनका अपनी जड़ों की ओर बार बार लौटना बहुत प्रीतिकर और सुखद अनुभवों से हमें भर देता है | ताइवान के किसी भी घटित प्रसंग में भारतीय जीवन का एक उजला कोना साफ़ साफ़ हमें दिखाई देता है जिसे जीते हुए देवेश का ताइवानी जीवन समृद्ध होता हुआ नज़र आता है |

देश के बाहर स्थित एक ऎसी नई जगह जो सात समुन्दर पार हो, वहां जाकर एक नए जीवन की शुरुवात करना अपने आप में किसी नई चुनौती से कम नहीं | डायरी के प्रथम खंड में समाहित 'ताइवान में पहला साल' शीर्षक वाले प्रसंग में जीवन की इस नयी चुनौती के कई कई रंग हैं | भोजन , आवास और नए लोगों से संवाद के लिए दैनिक जद्दोजहद के साथ-साथ दैनिक जीवन में मानव निर्मित बाधाएं यहाँ शिद्दत से विस्तार पाती हैं | यहाँ सरपंच नामकरण के साथ जिस असंतुष्ट और विघ्नकारी पात्र का जिक्र आया है उसका चरित्र चित्रण देवेश ने बहुत रोचकता से किया है | एक ही बिल्डिंग में साथ रहते हुए हर समय टोका टाकी करने वाले इस विघ्न संतोषी पात्र के माध्यम से देवेश इस तथ्य को सामने रखते हैं कि यदि जीवन में किसी बाधा को आप सहजता से स्वीकार करते हैं तब आपकी जीवन यात्रा सहज और संघर्ष प्रबल होने लगता है | ऎसी स्थितियां हरेक के जीवन में कभी न कभी वेश बदल कर आती होंगी पर उन्हें खूबसूरती के साथ सहज रूप में अभिव्यक्त कर पाना सबके बस की बात नहीं | देवेश ने ताइवानी जीवन जीने की उस शुरूवाती संघर्ष को जीवंत रूप में यहाँ प्रस्तुत किया है |

साइकिल निम्न मध्यवर्गीय जीवन का एक ऐसा प्रतीक है जिसके माध्यम से सर्वहारा जीवन की प्रतिछवियां हमारे मन में उभरती हैं | इस प्रतीक के बहाने वे ऎसी घटनाओं का जिक्र करते हैं जिनमें जीवन संघर्ष की कहानियाँ बयाँ होने लगती हैं |वे इस प्रतीक के बहाने इस बात को भली भांति कह पाते हैं कि जीवन में साइकिल की संगत का बने रहना जैसे हर घड़ी जीवन में संघर्ष और गतिशीलता का बने रहना है | 

"जिस आदमी का बचपन साइकिल सुधारने के बहुत देर बाद हैंडपंप से गंदे हाथ धोने में बीता हो वह कहाँ टिश्यू पेपर लेता | वैसे भी वे कालिख को पूरी तरह साफ़ नहीं करते |हाथ गंदे होने का डर रखकर चेन नहीं चढ़ाई जाती|" 

साइकिल वाले प्रसंग में इन पंक्तियों का उल्लेख यहाँ जरूरी लगता है |

अप्रवासी जीवन जीते हुए भी देवेश के भीतर की भारतीयता कभी दूर नहीं होती | 'दो घड़ीसाज' वाले प्रसंग में ताइवानी और भारतीय घड़ीसाज की रोचक तुलना करते हुए भारतीय घड़ीसाज के हुनर को जिस तरह बिना कुछ कहे वे सामने रख देते हैं वहां ताइवानी घड़ीसाज फेलियर साबित होने लगता है |यह समूचा प्रसंग बहुत रोचक रूप में हम तक संप्रेषित होता है |

रचनाकार को समाज के सामने खुद के जीवन मूल्यों की सुरक्षा को लेकर न केवल सचेत रहना चाहिए बल्कि उसे अपने जीवन में घटित घटनाओं की अभिव्यक्ति के माध्यम से अपने पाठकों को भी ऐसा करने को प्रेरित करना चाहिए | 'मैं चोर माना जा सकता था' रचनाकार की सतर्कता और जीवन मूल्यों की सुरक्षा को लेकर गहरी प्रतिबद्धता का एक लघु आख्यान ही है जो प्रारंभ में थोड़ा बेचैन करता है फिर मन को शुकून पहुंचाता है |एक रचनाकार को न केवल चेतना संपन्न होना चाहिए बल्कि जीवन मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध भी होना चाहिए , देवेश इस तथ्य को बहुत साफगोई से यहाँ रखते हैं |

डायरी लेखन , जीवन के उतार चढ़ाव भरे प्रसंगों को वैचारिक और कलात्मक रूप में शाब्दिक ढांचा देने का एक जीवंत दस्तावेज है | 'अवसाद से बाहर कलात्मक और सामाजिक युक्तियाँ' शीर्षक वाले खंड में कवि लेखक देवेश से इतर उनके जीवन के और भी ऐसे रचनात्मक प्रसंग हैं जो जीवन जीने के कौशलों से संपृक्त हैं और अवसाद की स्थिति में किसी व्यक्ति को रास्ता दिखाने का काम करते हैं | यहाँ उनकी रूस और फ़्रांस की यात्राओं के रोचक प्रसंग हैं जिसे जरुर पढ़ा जाना चाहिए |

'एंडोस्कोपी दो प्याजा' शीर्षक वाले प्रसंग में खराब स्वास्थ्य और उसके उपचार को लेकर हस्पतालों की ओर दौड़ का जिक्र है | इलाज के दरमियान स्वयं और परिजनों के भीतर बनने वाली मनः स्थितियों से उत्पन्न डर का बहुत बारीक चित्रण यहाँ मिलता है |

'कोरोना काल में ताइवान' वाला प्रसंग भारत के कोरोना काल की याद दिलाता है | भले ही ताइवानी नागरिकों ने कोरोना का दंश न झेला हो पर वहां विभिन्न देशों से कोरोना की विभीषिकाओं की खबरें जिस तरह पहुंचती रहीं और एक दहशत का वातावरण बना रहा, उस दहशतजदा वातावरण का चित्रण देवेश की डायरी में शिद्दत से दर्ज है |

"मेरी यूनिवर्सिटी में बसंत दो बार आता है | पहली बार जब सच में बसंत आता है और तमाम फूलों के साथ सकुरा के फूल खिलते हैं | दूसरी बार जब यूनिवर्सिटी का नया सत्र शुरू होता है | हर साल सितम्बर के महीने में कॉलेज में नए आने वाले ये टीनएजर्स जिन्हें यहाँ फ्रेश मेन कहा जाता है शुरू शुरू में कितने मासूम से दीखते हैं |वैसे इस तरह की मासूमियत भारत में कहीं ज्यादा दिखती है क्योंकि वहां तथाकथित भारतीय वैल्यूज का असर स्कूल तक काफी मजबूत रहता है जो कॉलेज में कदम रखते ही ऐसा काफूर होता है जैसे भरे हुए गुब्बारे को बांधा न गया हो और ऊंगलियों के बीच से एकदम से छोड़ दिया गया हो"

'दूसरा वसंत छठी किश्त' वाले प्रसंग की उपरोक्त पंक्तियाँ देवेश के भीतर मौजूद बारीक विजन की कलात्मक प्रस्तुतियों को हमारे सामने रखती हैं | यह प्रसंग आगे भी उसी रोचकता को विस्तार देता है जो रुचिकर है और पठनीय भी |

डायरी अंश के 'ऑब्जर्वर लड़की' वाले प्रसंग को पढ़ना बहुत प्रीतिकर लगता है | पाठक के तौर पर हमें महसूस होता है जैसे हम कोई कहानी से गुजर रहे हों |इस प्रसंग में बीस साल की एक अलहदा लड़की यंग शन शुन का जिक्र है जो कला की अंडर ग्रेजुएट छात्रा है और कवितायेँ भी लिखा करती है | उससे हुए आत्मिक संवाद के जरिये देवेश लिखते हैं कि यह लड़की अपने चेहरे से लोगों को एक सुन्दर और प्यारी सी लड़की नज़र आती है जबकि लड़की का स्वयं का अनुभव है कि वह भीतर से एक बूढ़े आदमी जैसा महसूस करती है |उसकी कविताओं में भी एक प्रौढ़ और परिपक्व मनुष्य प्रतिबिंबित होता है |यह लड़की लोगों से मित्रता नहीं करती बल्कि उन्हें ऑब्जर्व करती है | वह सोचती है कि अगर वह लोगों से घुल मिल गयी और उनकी बातों का हिस्सा बन गयी तो वह तटस्थ विश्लेषण नहीं कर पाएगी |इस लड़की को लेकर देवेश अपना खुद का अनुभव साझा करते हुए लिखते हैं कि भले ही इस राह पर चलकर दार्शनिक संतुष्टि मिलती हो पर अंत में यह रास्ता अवसाद और अकेलेपन की ओर आदमी को ले जाता है |कोई प्रगाढ़ मित्र न होने के कारण अपने जन्म दिन पर केक न काट पाने वाली इस दार्शनिक सी लड़की को देवेश द्वारा एक सस्ता सा केक भेंट करना अच्छा लगता है जैसे वे उसे इस अवसाद भरे रास्तों से बचाना चाहते हों|

डायरी अंश 'फिजियोथेरेपी दिसम्बर और तीन स्त्रियाँ', 'नववर्ष 2021' में कठिन जीवन संघर्ष के मध्य मिलकर पुनः दूर हो जाने वाले लोगों की खट्टी मीठी स्मृतियाँ , उनसे संवाद के बहुत आत्मीय अनुभवों का जिक्र आता है जिसे पढ़ते हुए यूं लगता है जैसे ये सब हमारे जीवन की भी कहानियाँ हैं |समूची घटनाएं महज विवरणों में न आकर बहुत वैचारिक और कलात्मक रूपों में हम तक पहुंचती हैं इसलिए उनका सम्प्रेषण गहरा है |

डायरी अंश कई बार कहानियों जैसा आभास कराने लगते हैं | ब्लूबेरी क्रम्बल को पढ़ते हुए यही अनुभव होने लगता है जैसे हम कोई कहानी पढ़ रहे हैं | मेरा अपना मानना है कि जीवन में घटित हरेक चीजें कहानी के ही तो अंश हैं| अगर हम उसे कहानी के जरूरी तत्वों के साथ पाठकों तक पहुंचा सकें फिर वे सभी घटनाएं कहानी का एहसास कराने लगती हैं |

किताब के दूसरे खंड में देवेश उन बातों का जिक्र करते हैं जहाँ पाठकों और उनके बीच एक किस्म का खुला संवाद है | रचना प्रक्रिया के दरमियान जिन रास्तों से उन्हें गुजरना पड़ा, जिन युक्तियों का उपयोग करते हुए उन्हें इस राह पर सफलता/असफलता मिली, उन सारी बातों को बड़े आत्मीय भाव के साथ अपने पाठकों के सामने रखने की कोशिश करते हैं | इस राह पर चलते हुए भविष्य में उनके जो भी सपने हैं , मन में जो भी आकांक्षाएं उठती हैं, वे उन्हें भी साझा करते हैं | इन सारी बातों से रचना कर्म की उनकी कठिन साधना को समझा जा सकता है| कविता की साधना , अनुवाद कर्म , कहानी लेखन के साथ डायरी लेखन का यह रास्ता बहुत दुरुह है जिसकी दुरुहता को शनैःशनैः वे लांघते जा रहे हैं जो उनके पाठकों के लिए संतोष का बिषय है |

इस किताब के डायरी अंशों को पढ़ते हुए मेरे मन में इस बात की चिंता जरूर बनी रही कि वे अपने स्वास्थ्य को लेकर कुछ लापरवाह जरूर हैं | वैचारिक दुनिया में डूबकर, रचनाकर्म में तल्लीन होते हुए कई बार रचनाकार को यह लगने लगता है जैसे कि वह बिना देह का है और फिर देह के प्रति लापरवाहियों कि शुरूवात यहीं से होने लगती है | पर चिकित्सकों , हस्पतालों के बीच उनकी आवाजाही के किस्से इतना जरूर आश्वस्त करते हैं कि देह को लेकर उनके भीतर की चेतना जल्द लौटती है और उन्हें हर बार संभाल लेती है |

बस अंत में डायरी अंश की इन खूबसूरत पंक्तियों के साथ मैं अपनी बात खत्म करता हूँ -


       "ताइवान में चेरी ब्लॉसम के फूल मार्च के अंत तक झड़ चुके होते हैं | उनका झड़ना मेरे लिए त्रासदी की तरह होता है | मैं वर्ष भर फूल खिलने के इन्तजार में उन पेड़ों को देखता रहता हूँ |वर्ष के शेष समय ये पेड़ कभी पत्तों सहित और कभी बिना पत्तों के खड़े रहते हैं |ताइवान में प्राकृतिक सुन्दरता प्रचुर मात्रा में है किन्तु चेरी ब्लॉसम मुझ पर वही असर करता है जो भारत में रह रहे कवियों पर हरसिंगार का होता है|"


किताब : 'छोटी आंखों की पुतलियों से'

लेखक:देवेश पथ सारिया

प्रकाशक :सेतु प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड नोयडा उत्तरप्रदेश

मूल्य: रु.299 , पेपरबेक संस्करण

-->देवेश की कविताएं यहां पढ़ें

----------------------------------------------------



रमेश शर्मा 

92 श्रीकुंज , बोईरदादर, रायगढ़ [छत्तीसगढ़]

फोन: 7722975017

ईमेल: rameshbaba.2010@gmail.com

 

टिप्पणियाँ

  1. सुंदर समीक्षा आपने लिखी है। लेखक और समीक्षक की मेहनत से एक अच्छी किताब के चयन करने का अवसर हिंदी के पाठकों को मिलेगा। बधाई।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इन्हें भी पढ़ते चलें...

कौन हैं ओमा द अक और इनदिनों क्यों चर्चा में हैं।

आज अनुग्रह के पाठकों से हम ऐसे शख्स का परिचय कराने जा रहे हैं जो इन दिनों देश के बुद्धिजीवियों के बीच खासा चर्चे में हैं। आखिर उनकी चर्चा क्यों हो रही है इसको जानने के लिए इस आलेख को पढ़ा जाना जरूरी है। किताब: महंगी कविता, कीमत पच्चीस हजार रूपये  आध्यात्मिक विचारक ओमा द अक् का जन्म भारत की आध्यात्मिक राजधानी काशी में हुआ। महिलाओं सा चेहरा और महिलाओं जैसी आवाज के कारण इनको सुनते हुए या देखते हुए भ्रम होता है जबकि वे एक पुरुष संत हैं । ये शुरू से ही क्रान्तिकारी विचारधारा के रहे हैं । अपने बचपन से ही शास्त्रों और पुराणों का अध्ययन प्रारम्भ करने वाले ओमा द अक विज्ञान और ज्योतिष में भी गहन रुचि रखते हैं। इन्हें पारम्परिक शिक्षा पद्धति (स्कूली शिक्षा) में कभी भी रुचि नहीं रही ।  इन्होंने बी. ए. प्रथम वर्ष उत्तीर्ण करने के पश्चात ही पढ़ाई छोड़ दी किन्तु उनका पढ़ना-लिखना कभी नहीं छूटा। वे हज़ारों कविताएँ, सैकड़ों लेख, कुछ कहानियाँ और नाटक भी लिख चुके हैं। हिन्दी और उर्दू में  उनकी लिखी अनेक रचनाएँ  हैं जिनमें से कुछ एक देश-विदेश की कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुक...

जैनेंद्र कुमार की कहानी 'अपना अपना भाग्य' और मन में आते जाते कुछ सवाल

कहानी 'अपना अपना भाग्य' की कसौटी पर समाज का चरित्र कितना खरा उतरता है इस विमर्श के पहले जैनेंद्र कुमार की कहानी अपना अपना भाग्य पढ़ते हुए कहानी में वर्णित भौगोलिक और मौसमी परिस्थितियों के जीवंत दृश्य कहानी से हमें जोड़ते हैं। यह जुड़ाव इसलिए घनीभूत होता है क्योंकि हमारी संवेदना उस कहानी से जुड़ती चली जाती है । पहाड़ी क्षेत्र में रात के दृश्य और कड़ाके की ठंड के बीच एक बेघर बच्चे का शहर में भटकना पाठकों के भीतर की संवेदना को अनायास कुरेदने लगता है। कहानी अपने साथ कई सवाल छोड़ती हुई चलती है फिर भी जैनेंद्र कुमार ने इन दृश्यों, घटनाओं के माध्यम से कहानी के प्रवाह को गति प्रदान करने में कहानी कला का बखूबी उपयोग किया है। कहानीकार जैनेंद्र कुमार  अभावग्रस्तता , पारिवारिक गरीबी और उस गरीबी की वजह से माता पिता के बीच उपजी बिषमताओं को करीब से देखा समझा हुआ एक स्वाभिमानी और इमानदार गरीब लड़का जो घर से कुछ काम की तलाश में शहर भाग आता है और समाज के संपन्न वर्ग की नृशंस उदासीनता झेलते हुए अंततः रात की जानलेवा सर्दी से ठिठुर कर इस दुनिया से विदा हो जाता है । संपन्न समाज ऎसी घटनाओं को भाग्य से ज...

रायगढ़ के राजाओं का शिकारगाह उर्फ रानी महल raigarh ke rajaon ka shikargah urf ranimahal.

  रायगढ़ के चक्रधरनगर से लेकर बोईरदादर तक का समूचा इलाका आज से पचहत्तर अस्सी साल पहले घने जंगलों वाला इलाका था । इन दोनों इलाकों के मध्य रजवाड़े के समय कई तालाब हुआ करते थे । अमरैयां , बाग़ बगीचों की प्राकृतिक संपदा से दूर दूर तक समूचा इलाका समृद्ध था । घने जंगलों की वजह से पशु पक्षी और जंगली जानवरों की अधिकता भी उन दिनों की एक ख़ास विशेषता थी ।  आज रानी महल के नाम से जाना जाने वाला जीर्ण-शीर्ण भवन, जिसकी चर्चा आगे मैं करने जा रहा हूँ , वर्तमान में वह शासकीय कृषि महाविद्यालय रायगढ़ के निकट श्रीकुंज से इंदिरा विहार की ओर जाने वाली सड़क के किनारे एक मोड़ पर मौजूद है । यह भवन वर्तमान में जहाँ पर स्थित है वह समूचा क्षेत्र अब कृषि विज्ञान अनुसन्धान केंद्र के अधीन है । उसके आसपास कृषि महाविद्यालय और उससे सम्बद्ध बालिका हॉस्टल तथा बालक हॉस्टल भी स्थित हैं । यह समूचा इलाका एकदम हरा भरा है क्योंकि यहाँ कृषि अनुसंधान केंद्र के माध्यम से लगभग सौ एकड़ में धान एवं अन्य फसलों की खेती होती है।यहां के पुराने वासिंदे बताते हैं कि रानी महल वाला यह इलाका सत्तर अस्सी साल पहले एकदम घनघोर जंगल हुआ करता था ...

छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक राजधानी रायगढ़ - डॉ. बलदेव

अब आप नहीं हैं हमारे पास, कैसे कह दूं फूलों से चमकते  तारों में  शामिल होकर भी आप चुपके से नींद में  आते हैं  जब सोता हूँ उड़ेल देते हैं ढ़ेर सारा प्यार कुछ मेरी पसंद की  अपनी कविताएं सुनाकर लौट जाते हैं  पापा और मैं फिर पहले की तरह आपके लौटने का इंतजार करता हूँ           - बसन्त राघव  आज 6 अक्टूबर को डा. बलदेव की पुण्यतिथि है। एक लिखने पढ़ने वाले शब्द शिल्पी को, लिख पढ़ कर ही हम सघन रूप में याद कर पाते हैं। यही परंपरा है। इस तरह की परंपरा का दस्तावेजीकरण इतिहास लेखन की तरह होता है। इतिहास ही वह जीवंत दस्तावेज है जिसके माध्यम से आने वाली पीढ़ियां अपने पूर्वज लेखकों को जान पाती हैं। किसी महत्वपूर्ण लेखक को याद करना उन्हें जानने समझने का एक जरुरी उपक्रम भी है। डॉ बलदेव जिन्होंने यायावरी जीवन के अनुभवों से उपजीं महत्वपूर्ण कविताएं , कहानियाँ लिखीं।आलोचना कर्म जिनके लेखन का महत्वपूर्ण हिस्सा रहा। उन्हीं के लिखे समाज , इतिहास और कला विमर्श से जुड़े सैकड़ों लेख , किताबों के रूप में यहां वहां लोगों के बीच आज फैले हुए हैं। विच...

गंगाधर मेहेर : ओड़िया के लीजेंड कवि gangadhar meher : odiya ke legend kavi

हम हिन्दी में पढ़ने लिखने वाले ज्यादातर लोग हिंदी के अलावा अन्य भाषाओं के कवियों, रचनाकारों को बहुत कम जानते हैं या यह कहूँ कि बिलकुल नहीं जानते तो भी कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी ।  इसका एहसास मुझे तब हुआ जब ओड़िसा राज्य के संबलपुर शहर में स्थित गंगाधर मेहेर विश्वविद्यालय में मुझे एक राष्ट्रीय संगोष्ठी में बतौर वक्ता वहां जाकर बोलने का अवसर मिला ।  2 और 3  मार्च 2019 को आयोजित इस दो दिवसीय संगोष्ठी में शामिल होने के बाद मुझे इस बात का एहसास हुआ कि जिस शख्श के नाम पर इस विश्वविद्यालय का नामकरण हुआ है वे ओड़िसा राज्य के ओड़िया भाषा के एक बहुत बड़े कवि हुए हैं और उन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से  ओड़िसा राज्य को देश के नक़्शे में थोड़ा और उभारा है। वहां जाते ही इस कवि को जानने समझने की आतुरता मेरे भीतर बहुत सघन होने लगी।वहां जाकर यूनिवर्सिटी के अध्यापकों से , वहां के विद्यार्थियों से गंगाधर मेहेर जैसे बड़े कवि की कविताओं और उनके व्यक्तित्व के बारे में जानकारी जुटाना मेरे लिए बहुत जिज्ञासा और दिलचस्पी का बिषय रहा है। आज ओड़िया भाषा के इस लीजेंड कवि पर अपनी बात रखते हुए मुझे जो खु...

तीन महत्वपूर्ण कथाकार राजेन्द्र लहरिया, मनीष वैद्य, हरि भटनागर की कहानियाँ ( कथा संग्रह सताईस कहानियाँ से, संपादक-शंकर)

  ■राजेन्द्र लहरिया की कहानी : "गंगा राम का देश कहाँ है" --–-----------------------------  हाल ही में किताब घर प्रकाशन से प्रकाशित महत्वपूर्ण कथा संग्रह 'सत्ताईस कहानियाँ' आज पढ़ रहा था । कहानीकार राजेंद्र लहरिया की कहानी 'गंगा राम का देश कहाँ है' इसी संग्रह में है। सत्ता तंत्र, समाज और जीवन की परिस्थितियाँ किस जगह जा पहुंची हैं इस पर सोचने वाले अब कम लोग(जिसमें अधिकांश लेखक भी हैं) बचे रह गए हैं। रेल की यात्रा कर रहे सर्वहारा समाज से आने वाले गंगा राम के बहाने रेल यात्रा की जिस विकट स्थितियों का जिक्र इस कहानी में आता है उस पर सोचना लोगों ने लगभग अब छोड़ ही दिया है। आम आदमी की यात्रा के लिए भारतीय रेल एकमात्र सहारा रही है। उस रेल में आज स्थिति यह बन पड़ी है कि जहां एसी कोच की यात्रा भी अब सुगम नहीं रही ऐसे में यह विचारणीय है कि जनरल डिब्बे (स्लीपर नहीं) में यात्रा करने वाले गंगाराम जैसे यात्रियों की हालत क्या होती होगी जहाँ जाकर बैठने की तो छोडिये खड़े होकर सांस लेने की भी जगह बची नहीं रह गयी है। साधन संपन्न लोगों ने तो रेल छोड़कर अपनी निजी गाड़ियों के जरिये सड़क मा...

समकालीन कहानी के केंद्र में इस बार: नर्मदेश्वर की कहानी : चौथा आदमी। सारा रॉय की कहानी परिणय । विनीता परमार की कहानी : तलछट की बेटियां

यह चौथा आदमी कौन है? ■नर्मदेश्वर की कहानी : चौथा आदमी नर्मदेश्वर की एक कहानी "चौथा आदमी" परिकथा के जनवरी-फरवरी 2020 अंक में आई थी ।आज उसे दोबारा पढ़ने का अवसर हाथ लगा। नर्मदेश्वर, शंकर और अभय के साथ के कथाकार हैं जो सन 80 के बाद की पीढ़ी के प्रतिभाशाली कथाकारों में गिने जाते हैं। दरअसल इस कहानी में यह चौथा आदमी कौन है? इस आदमी के प्रति पढ़े लिखे शहरी मध्यवर्ग के मन में किस प्रकार की धारणाएं हैं? किस प्रकार यह आदमी इस वर्ग के शोषण का शिकार जाने अनजाने होता है? किस तरह यह चौथा आदमी किसी किये गए उपकार के प्रति हृदय से कृतज्ञ होता है ? समय आने पर किस तरह यह चौथा आदमी अपनी उपयोगिता साबित करता है ? उसकी भीतरी दुनियाँ कितनी सरल और सहज होती है ? यह दुनियाँ के लिए कितना उपयोगी है ? इन सारे सवालों को यह छोटी सी कहानी अपनी पूरी संवेदना और सम्प्रेषणीयता के साथ सामने रखती है। कहानी बहुत छोटी है,जिसमें जंगल की यात्रा और पिकनिक का वर्णन है । इस यात्रा में तीन सहयात्री हैं, दो वरिष्ठ वकील और उनका जूनियर विनोद ।यात्रा के दौरान जंगल के भीतर चौथा आदमी कन्हैया यादव उन्हें मिलता है जो वर्मा वकील स...

रघुनंदन त्रिवेदी की कहानी : हम दोनों

स्व.रघुनंदन त्रिवेदी मेरे प्रिय कथाकाराें में से एक रहे हैं ! आज 17 जनवरी उनका जन्म दिवस है।  आम जन जीवन की व्यथा और मन की बारिकियाें काे अपनी कहानियाें में मौलिक ढंग से व्यक्त करने में वे सिद्धहस्त थे। कम उम्र में उनका जाना हिंदी के पाठकों को अखरता है। बहुत पहले कथादेश में उनकी काेई कहानी पढी थी जिसकी धुंधली सी याद मन में है ! आदमी काे अपनी चीजाें से ज्यादा दूसराें की चीजें  अधिक पसंद आती हैं और आदमी का मन खिन्न हाेते रहता है ! आदमी घर बनाता है पर उसे दूसराें के घर अधिक पसंद आते हैं और अपने घर में उसे कमियां नजर आने लगती हैं ! आदमी शादी करता है पर किसी खूबसूरत औरत काे देखकर अपनी पत्नी में उसे कमियां नजर आने लगती हैं ! इस तरह की अनेक मानवीय मन की कमजाेरियाें काे बेहद संजीदा ढंग से कहानीकार पाठकाें के सामने प्रस्तुत करते हैं ! मनुष्य अपने आप से कभी संतुष्ट नहीं रहता, उसे हमेशा लगता है कि दुनियां थाेडी इधर से उधर हाेती ताे कितना अच्छा हाेता !आए दिन लाेग ऐसी मन: स्थितियाें से गुजर रहे हैं , कहानियां भी लाेगाें काे राह दिखाने का काम करती हैं अगर ठीक ढंग से उन पर हम अपना ध्यान केन्...

गजेंद्र रावत की कहानी : उड़न छू

गजेंद्र रावत की कहानी उड़न छू कोरोना काल के उस दहशतजदा माहौल को फिर से आंखों के सामने खींच लाती है जिसे अमूमन हम सभी अपने जीवन में घटित होते देखना नहीं चाहते। अम्मा-रुक्की का जीवन जिसमें एक दंपत्ति के सर्वहारा जीवन के बिंदास लम्हों के साथ साथ एक दहशतजदा संघर्ष भी है वह इस कहानी में दिखाई देता है। कोरोना काल में आम लोगों की पुलिस से लुका छिपी इसलिए भर नहीं होती थी कि वह मार पीट करती थी, बल्कि इसलिए भी होती थी कि वह जेब पर डाका डालने पर भी ऊतारू हो जाती थी। श्रमिक वर्ग में एक तो काम के अभाव में पैसों की तंगी , ऊपर से कहीं मेहनत से दो पैसे किसी तरह मिल जाएं तो रास्ते में पुलिस से उन पैसों को बचाकर घर तक ले आना कोरोना काल की एक बड़ी चुनौती हुआ करती थी। उस चुनौती को अम्मा ने कैसे स्वीकारा, कैसे जूतों में छिपाकर दो हजार रुपये का नोट उसका बच गया , कैसे मौका देखकर वह उड़न छू होकर घर पहुँच गया, सारी कथाएं यहां समाहित हैं।कहानी में एक लय भी है और पठनीयता भी।कहानी का अंत मन में बहुत उहापोह और कौतूहल पैदा करता है। बहरहाल पूरी कहानी का आनंद तो कहानी को पढ़कर ही लिया जा सकता है।       ...

जीवन प्रबंधन को जानना भी क्यों जरूरी है

            जीवन प्रबंधन से जुड़ी सात बातें